Sunday, April 5, 2009

लंगड़ा आम कि लूला पान- क्या है रजा बनारस


नेट पर वह बनारस कहीं नहीं है जो मणिकर्णिका और गोदौलिया पर पान घुलाता मिलता है। वहां तो उसकी अतीत की भुस भरी खाल है। रंगीन तस्वीरों और छींटदार अंग्रेजी में वह मोक्ष का धर्मालोकित शहर है जहां प्राचीनता की छांव में एकमेक हो गए धर्म, संस्कृति और इतिहास को ड़ॉलरदाता पर्यटक कैमरे में बंद कर मुफ्त अपने घर ले जा सकता है। तांत्रिक, मांत्रिक और अघोरी हैं, शास्त्रार्थ करते विद्वान हैं, मठों और अन्नक्षेत्रों में धर्म संरक्षित है। कंपूटर पर वह मूषक चालित आभासी तीर्थ है। तीर्थयात्री वे हैं जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय एयरलाइन्स और वातानूकूलित बसें ढोकर यहां तक लाती हैं।

सर्च इंजन पर काशी नाम का कोई डिब्बा जोड़िए गाड़ी सीधे किसी पुराणकालीन स्टेशन पर जाकर रूकती है। वहां वही काल्पनिक पुरातन शहर है जिसे हम मेले-ठेले पर पटरी साहित्य उर्फ काशी महात्मय जैसी पुस्तकों में पढ़ते आए हैं। सिर्फ भाषा बदल गई है।

वेबसाइटें बता रही हैं कि भारत में जैसे लोग खुलेआम शौच करते हैं वैसे ही मृत्यु भी सार्वजनिक ढंग से देह से स्खलित होती है। मुर्दों को चांडाल (परिजन नहीं) कंधों पर ढोकर मणिकर्णिका लाते हैं। पवित्र अग्नि डोम राजा के हाथ सुरक्षित रहती है और जो कभी नहीं बुझती। बच्चों की एक इलेक्ट्रानिक मैगजीन में बताया गया है कि इस पवित्रतम शहर में पंडे गंगा के किनारे खड़े रहते हैं और वे थोड़ा सा पैसा या अनाज लेकर श्रद्धालुओं को भोजन, फूल और प्रार्थना की कोचिंग देते हैं। ऐसे चांडाल और कोच यहां कहां हैं, किसी ने देखे हैं?

एक तरफ ये मूषक-चालित तीर्थ है दूसरी तरफ विदेशी सैलानियों के ट्रैवलाग हैं जो बनारस की ज्यादा सटीक तस्वीर पेश करते हैं। एक यात्री फिलिप बी आईवार्ड जूनियर लिखता है- सौ साल से पुरानी एक अंधेरी गली में गली में घूमते मुझे लगा कि मैं पंद्रहवीं शताब्दी में हूं। एक अंधेरी दुकान में मैने दो बनारसियों को, पच्चीस इंच के सोनी टीवी पर वीडियो गेम खेलते देखा। किताबी कल्पना से बनाया मेरा रोमांटिक संसार भरभरा कर ढह गया। एक संगीत समारोह में मुझे महसूस हुआ जैसे किसी खास गर्मी से ब्याकुल बिल्लियां आपस में लड़ रही हों। रात सपने में मुझे लगा जैसे तुरही बजाते लोगों, सांप, गोबर के बीच उठता गिरता भटक रहा हूं। शोर-शराबा इतना था कि भगवान शिव भी घबरा कर ईयर प्लग लगा लेते हैं।

एक और यात्रिन सोफिया स्मिथ लिखती है- रिक्शा, साईकिल, और टैंपो से भरे ट्रैफिक में हजारों लोग रेंग रहे थे। भैंसे बीच सडक में ढिठाई से खड़ी थीं और सांड़ एक दूसरे को चुनौती दे रहे थे। शोर पागल कर देने वाला था। गलियां और सड़कें पान की पीक से लाल थीं। फिर भी इस शहर पर कोई पवित्र आभा है जिसे बनारस कहते हैं।

बनारस पता नहीं क्या है, कैसा शहर है- मुझे अचरज है कि इस लोकसभा चुनाव में पतंगी हिंदू नेता मुरली मनोहर जोशी और खांटी माफिया मोख्तार अंसारी पर कोई ढंग का कोई नारा क्यों नहीं आया अब तक? ध्यान रहे जिस वीपी सिंह को बनारस ने राजर्षि की उपाधि दी थी उसी ने, राजा नहीं फकीर है देश का बवासीर है लंठारक्षणी नारा भी दिया था।

क्यों कहा जाता है- चना, चबैना, गंगजल जो पुरवै करतार - काशी कबहूं न छोड़िए विश्वानाथ दरबार। चना चबैना की जगह इडली-बर्गर है, गंगजल झंडूबाम हो चुका है और विश्वनाथ दरबार का सरकारी अधिग्रहण हो चुका है और वहां पारदर्शी दान-पेटिका लग चुकी है ताकि माल तिड़ी करे तो अफसर नीचे का कोई पंडा-पुजारीनुमा आदमी न कर पाए।

हमेशा कुछ दिन बाद लगने लगता है कि पता नहीं आजकल बनारस क्या है? रांड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी के उस पार क्या है। आप जानते हैं? है कोई बनारसी।

10 comments:

अफ़लातून said...
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मुनीश ( munish ) said...

Come on Anil Bhai ! Soon Abhi & Ash r going to inaugurate a discotheque in Benaras.According to one marwari owned National newspaper it will be first of its kind in entire eastern U.p.,Bihar and Jharkhand.I think the contrast will be complete with this disc named 'Agnee'.
In my family im the only one who has not visited Kashi ,but some day i'd love to visit this legendry city.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

क्या बनारस भी पलपल रंग बदलता है?

नीलोफर said...

कालिदास, इतने अरसे आपने वहां क्या किया। अब तक नहीं जान पाए।

Unknown said...

फिर छानै लगला का?

Arvind Mishra said...

घिनौना, छिः ! रीवर आफ गोड्स पढ़ लो भाई -इयान मैकडोनाल्ड ने लिखी है २००७ में ! उससे घिनौना नहीं लिख पाओगे ! कबीर की परम्परा के लगते हो ! हर जगह मैला ही दिखेगा !

Unknown said...

अरविंद मिश्र जी आपकी टाई आपके साक्षर होने की चुगली करती है। कबीर की परंपरा क्या हर जगह मैला देखती है। बनारस का यह वृतांत घिनौना लगा तो मेरा क्या दोष यह तो पर्यटकों ने लिखकर नेट पर डाल रखा है। मैने तो उनका नजरिया और अपना असमंजस यहां री-पोर्ट कर दिया है।
शुभकामनाएं

Ashok Pande said...

रांड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी के उस पार क्या है। ...

जानना है सर!

हमें तो एलेन गिन्सबर्ग की सायरी याद है जरा जरा (ज़रा न पढ़ा जाए).

बाकी कबीर बाबा के मसले पर तो तो यूं कि हमारी (एभरीबडी इन्क्लूडेड) सत्ताइस पुश्तें लग जाएंगी उस देवता के पैर के नाख़ूनों की मैल सूंघते!

बहुत जबर लिखे दद्दा! सच में शुक्रिया!

सिद्धान्त said...

मैं बनारस का कुछ हद तक सही परिचय केदारनाथ सिंह की कविता से दिखा सकता हूँ कि ये शहर अपने आधे भाग को जीता है और बचे आधे भाग में ब्रह्म, संगीत और ज्ञान का सिक्का चलता है, डिजिटल संग्रह हमेशा उन्ही चीज़ों को दिखाते हैं जो पर्यटन और पैसे को बढ़ावा दें, दरअसल आपको इन्टरनेट पर मणिकर्णिका घाट दिख जायेगा लेकिन जलती लाशें नहीं दिखेंगी क्योंकि यहाँ के घाट और गलियाँ ज्यादा मशहूर हैं न की मुर्दे (इन्टरनेट पर और पर्यटकों में). लेकिन बनारस अपने समूचे के साथ बहुत ज़्यादा ख़ुश रहने वाला शहर है और उस समूचे में गोबर और मॉल दोनों हैं, विडियो गेम और जुआ दोनों हैं, वाइन शॉप और पान की दुकान दोनों हैं. कुल मिलाकर ये शहर अपने में मस्त रहना ज्यादा पसंद करता है. भविष्य के लिए शुभकामनाएं.

सिद्धान्त मोहन तिवारी

Neeraj said...

आपके विषय चुनाव का 'फैन' हूँ |